आँगन में आज दो फूल खिलें
घर में ख़ुशी की लहर छा गयी
इन दोनो को देख के सोचती हूँ
जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
दिन भर घर से बाहर रहती थी
घूमना-फिरना, सीनेमा में मशगूल रहती थी
अब तो बस किलकारियों में क़ैद हो गयी
जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
खाने का तो नाम ना लो, नख़रे हज़ार होते थे
आज बच्चों के पीछे भागते भागते
सुबह की चाई दोपहर की बन गयी
जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
मेरी स्कूटी मेरी जान हुआ करती थी
कभी भी, कहीं भी, यूँ ही निकल पड़ती थी
कबसे ख़ुद के लिए जीने को तरस गयी
जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
कपड़े जूते चुन चुन के पहनती थी
घंटो चेहरे पे चंदन लगाया करती थी
अब तो फ़ुर्सत से नहाना भी ख़्वाहिश बन गयी
जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
कब कैसे जिंदेगी में इतनी दूर आ गयी
खामखां ही इतनी बड़ी हो गयी
ख़ुद के बचपन से उभरते उभरते
ना जाने कब दो बच्चों की माँ बन गयी
नींद तो मानो पहला प्यार था मेरा
अब रात से सुबह हो जाती है बच्चों को सुलाने में
पर उनके सोने के बाद भी जब उनको निहारने लगी
तब हंस पड़ी, सचमुच, मैं दो बच्चों की माँ बन गयी
Remembered Subhadra Kumari Chauah's "Mera Naya Bachpan" after reading your lines here..
ReplyDeleteAm honoured 🙏
DeleteSuch is the reality of life!
ReplyDeleteRealization that she's graduated to being a mother of two kids! Well expressed.
:)
ReplyDeleteVery profound...and scary for someone who is yet to experience motherhood.
ReplyDeleteLove your style of writing. :)
Thankyou so much :) and yes I’ve managed to scare a few of my friends!
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