मायका तो माँ से ही है। कैसा होता अगर ससुराल में भी एक माँ होती। कोई होता जो हमारा ख़याल रखता, हमें समझता, हमसे प्यार करता।
एक दुल्हन जब ससुराल पोहोचती है, उसके मन में कई सवाल होते है। मैं कहाँ बैठूँ, चुप रहूँ या बात करूँ, कितना खाना खाऊँ, चाई में शक्कर कितना डालूँ, खाने में तिखा डालूँ या नहीं। सोचो, अगर ससुराल में भी एक माँ होती तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता।
हर घर के अपने अलग तौर-तरीक़े, रीति-रिवाज होते है और नयी बहु से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वो एक ही दिन में इस नए घर की रंग में ढल जाए। ऐसे में अगर कोई ऐसा मिल जाए जो हमारे मन की भावनाओं को समझ ले तो ससुराल को घर बनते देर नहीं लगती।
मुझे मिली एक ऐसी ही माँ मेरे ससुराल में। मेरी सासुमाँ।
पहले दिन से ही उन्होंने मुझे अपना बेटी माना और सिर्फ़ कहने के लिए नहीं, दिल से बेटी माना। बड़े प्यार से हर नयी चीज़ समझायी, हर काम में मेरा साथ दिया, हर ग़लती को माफ़ किया। और देखते ही देखते एक माँ-बेटी का अटूट रिश्ता बन गया।
धीरे धीरे एक दूसरे की आदतें भी पता चलने लगी। हम दोनो काफ़ी एक जैसे ही है। हम चाई को कभी ना नहीं कहते, हमें दो क़दम चलना भी अच्छा नहीं लगता, हमें साथ में ख़रीदारी करना बहोत पसंद है और बाहर जाते है तो पिज़्ज़ा खा कर ही लौट ते है।
ये सच है की माँ का स्थान कोई नहीं ले सकता और ऐसा नहीं है की माँ की याद नहीं आती। पर क्यूँकि माँ जैसी सासुमाँ मिल गयी है इसलिए अब हर वक़्त माँ का प्यार मुझे मिल जाता है।
हम साथ में मूवीज़ भी जाते है, देर रात तक बैठ के बातें करते है और एक दूसरे की हर ज़रूरत भी समझ लेते है। थकान भरे दिन के बाद जब सासुमाँ प्यार से मेरे बालों पे तेल मालिश कर देती है तब लगता है सचमुच हर ससुराल में एक माँ होती तो बिलकुल ऐसा होता।
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